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रास्ते की मुश्किल / कुमार अंबुज

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आप मेज़ को मेज़ तरह और घास को घास की तरह देखते हैं
इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह
तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि
कुछ पुलिस-अधीक्षक होकर, कुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर
और कुछ तो मुख्यमन्त्री होकर, कुछ घर-गृहस्थी से निबट कर
बच्चों के शादी-ब्याह से फ़ारिग होकर होना चाहते हैं कवि
कि जीवन में कवि न होना चुन कर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि
कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं
लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फ़ूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते
जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तहसीलदार भी नहीं हुए
जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए
और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफ़सोस जताया
कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया
और कुछ कवियों ने तो इतनी ज़ोर से लात मारी कि कुर्सियाँ कोसों दूर जाकर गिरीं
यह सब पढ़-लिख कर, और जान कर भी, हिन्‍दी में एम० ए० करके, विभागाध्यक्ष हो कर
या फिर पत्रकार से सम्पादक बन कर कुछ लोग तय करते हैं
                                                 कि चलो, अब कवि हुआ जाए
और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्‍याति
कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें
फिर भी अपने एकान्त में वे जानते हैं और बाक़ी सब तो समझते ही हैं
कि जिन्हें होना होता है कवि, चित्रकार, सितारवादक या कलाकार
उन्होंने ग़लती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार
या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाज़ार
तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है
यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं
उस रास्ते की मंज़िल तक पहुँच कैसे सकते हैं ।