भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रास्ते मुड़ गये / अवनीश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:15, 7 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भीड़ संशय में
खड़ी बतिया रही,
रास्ते चुपचाप
जाकर मुड़ गये

कन्दराएँ चीखतीं
पर्वत
खड़े हैं, मौन हैं,
रात को अंधे
कुएँ में
झाँकते ये कौन हैं?

हम रहे अनजान
हरदम ही यहाँ,
हाथ के तोते
अचानक उड़ गये

घुड़सवारों
की तरह ही
पीठ पर कसने लगीं,
मृत्यु-शैया
पर अचानक
सिलवटें गढ़ने लगीं,

धूप की सतहें
कसी हैं जीन सी
राह के हमदर्द
लैया-गुड़ गये

रथ कई गुजरे
यहाँ
से आज तक,
धर्म के पथ से
असुर
के राज तक,

आहटें,हलचल
अधिक जिससे मिलीं,
लोग उस इतिहास
से ही जुड़ गये