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राह-ए-ग़म में तू मेरी हद-ए-नज़र से दूर था / राम अवतार गुप्ता 'मुज़्तर'

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राह-ए-ग़म में तू मेरी हद-ए-नज़र से दूर था
फिर भी मैं तुझ को बुलाने के लिए मजबूर था

जान दे कर तुझ पे ‘मुज़्तर’ किस क़दर मसरूर था
मौत के चेहरे पे गोया ज़िंदगी का नूर था

क़ाफ़िला किरनों का जब तक गुलिस्ताँ से दूर था
गौहर-ए-शबनम पहन कर गुल बहुत मग़रूर था

जज़्ब-ए-ग़म से दिल भर आया हौसला काफ़ूर था
ठेस शीशे को लगी तो संग चकना-चूर था

इम्तिहानन हर क़दम पर तीरगी थी नूर था
उस से हो मुंकिर कोई ये उस को कब मंज़ूर था

ज़िंदगी की राह में थे मज़हबों के फ़ासले
तू भला मुझ से वगरना क्या कोई कुछ दूर था

था सुरूर-आलूद हर पल हर नफ़स सर मस्तियाँ
लम्हा लम्हा मय-कदे का वज्द से मामूर था

राह-ए-ग़म में ज़िदगी के इश्क़ आड़े आ गया
वरना क़ज़्ज़ाक-ए-अज़ल का वार तो भर पूर था

फ़क़ थे उस के रू-ब-रू गोया हज़ारों आफ़ताब
उफ़ शहीद-ए-हक़ की पेशानी पे कैसा नूर था