भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राह / विजय कुमार सप्पत्ति

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:54, 7 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार सप्पत्ति |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज चढ़ता था और उतरता था....
चाँद चढ़ता था और उतरता था....
जिंदगी कहीं भी रुक नही पा रही थी,
वक्त के निशान पीछे छुठे जा रहे थे ,
लेकिन मैं वहीं खड़ा हूं ...
जहाँ तुमने मुझे छोडा था....
बहुत बरस हुए ;
तुझे , मुझे भुलाए हुये !

मेरे घर का कुछ हिस्सा अब ढ़ह गया है !!
मुहल्ले के बच्चे अब जवान हो गए है ,
बरगद का वह पेड़ ,
जिस पर तेरा मेरा नाम लिखा था
शहर वालों ने काट दिया है !!!

जिनके साथ मैं जिया ,वह मर चुके है
मैं भी चंद रोजों में मरने वाला हूं
पर,
मेरे दिल का घोंसला ,
जो तेरे लिए मैंने बनाया था,
अब भी तेरी राह देखता है.....