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रीतते हुए / उमा अर्पिता

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मेरे दोनों हाथों की
मुट्ठियाँ बंद थीं…
एक में थे अनगिनत
रंगीन सपने
और दूसरी में
आशा और विश्वास के संगम का
निर्मल पानी, जिन्हें सहेजे-सहेजे
पग-पग धरती
धीमे-धीमे चलती रही थी मैं...

लेकिन अचानक उठा था
न जाने कैसा तूफान, कि अनायास ही
खुल गई थीं मेरी मुट्ठियाँ
और बिखर गया था
एक-एक सपना
रीत गया था उँगलियों के पोरों से
आशा और विश्वास का पानी भी...

अब मेरी हथेलियों में चुभती है
उदासी, निराशा और अविश्वास की रेत
तुम्हीं कहो दोस्त--
कब तक सहनी होगी मुझे यह चुभन...?