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रूप न राग न रस की वर्षा, त्याग न तपस-विभायें / गुलाब खंडेलवाल

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रूप न राग न रस की वर्षा, त्याग न तपस-विभायें
इन गीतों में क्या कुछ भर दूँ, जो तुमको भा जाएँ!
 
जीर्ण-शीर्ण मानस के तट पर
मोती नहीं, न जल ही घट भर
गिरते टूट कगारे कटकर
हंस कहाँ से आयें!
 
मैंने फिर भी मोह न त्यागा
अम्बर से शशि को ही माँगा
बुनता रहा अहम् का धागा
अपने दायें-बायें
 
मुकुर हाथ से शाशिमय छूटा
कल्पित भाव-सूत्र भी टूटा
ठूँठ खड़ा ज्यों दव का लूटा
नभ को किये भुजायें
 
रूप न राग न रस की वर्षा, त्याग न तपस-विभायें
इन गीतों में क्या कुछ भर दूँ, जो तुमको भा जाएँ!