भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोअला-धोअला से रिसियो का मोक्ष कबो ना होला / सन्त कुमार वर्मा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:06, 6 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सन्त कुमार वर्मा |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोअला-धोअला से रिसियो का मोक्ष कबो ना होला।
स्वर्ग-द्वार कब बन्द भइल हऽ, देख विनोदी चोला।
एही से विवेकवाला जन हँसत-हँसावत र हके,
मस्ती के उपहार बिखेरेले भर-भर के झोला॥1॥

धरती पर बस तीन रतन बा-
अन्न, नीर आ मधुर वचन।
रत्न कहल पाषाण-खंड के-
इहे हवे अविवेक कथन॥2॥

अमवाँ के डलिया प चिड़िया चुरुंग बइठ-
दिन-रात करे गुलजार।
मोजरा के मधु बाकी कोइले नेवान करे-
इहे हवे जिनगी के सार॥3॥

धन के साथे अल्हड़ जवानी,
उल्लू भइल संघाती।
प्रभुता-मद से मातल मनुआँ
बन जइहें उत्पाती॥4॥