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लदा-फँदा वसन्त / सुधा गुप्ता

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पीले फूलों से
लदा-फँदा वसन्त
तितली पीछे
दौड़ता,कनेर का
मधु चूसता
सीपी –कौड़ी बीनता
फूल –पाँखुरी
किताबों में सुखाता
न जाने कहाँ
चुपके से खो गया !
सुर्ख़ गुलाब
खिले खिलते गए
मौसम जो था !
डाली पर झूमते
खिलखिलाते
महक से लुभाते
लोभी भँवरा
पास था , इतराते
वक़्त की मार
रंग-रूप खोकर
मुरझाकर
धूल की भेंट चढ़े  !
शीत-प्रकोप
हाड़-हाड़ कँपाता
घना कोहरा
नज़र नहीं आता
दूर-पास का
न कोई हमराही
न संग –साथ
दुर्वह बोझ ढोते
अकेले रास्ते
अब खिली सेवती
निर्व्याज हँसी !
रोम-रोम भीगा है !
आँसुओं का डेरा है ! !
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24 फ़रवरी , 2014