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लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए / सब्त अली सबा
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लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए
आहनी हार लिए दर पे सिपाही आए
वो किरन भी तो मिरे नाम से मंसूब करो
जिस के लुटने से मिरे घर में सियाही आए
मेरे ही अह्द में सूरज की तमाज़त जागे
बर्फ़ का शहर चटख़ने की सदा ही आए
इतनी पुर-हौल सियाही कभी देखी तो न थी
शब की दहलीज़ पे जलने को दिया ही आए
रह-रव-ए-मंज़िल-ए-मक़्तल हूँ मिरे साथ ‘सबा’
जो भी आए वो कफ़न ओढ़ के राही आए