भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका / 'अनवर' साबरी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:29, 2 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अनवर' साबरी }} {{KKCatGhazal}} <poem> लब पे काँटो...' के साथ नया पन्ना बनाया)
लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद
कोई आया ही नहीं आबला-पा मेरे बाद
मेरे दम तक ही रहा रब्त-ए-नसीम ओ रुख़-ए-गुल
निकहत-आमेज़ नहीं मौज-ए-सबा मेरे बाद
अब न वो रंग-ए-जबीं है न बहार-ए-आरिज़
लाला-रूयों का अजब हाल हुआ मेरे बाद
चंद सूखे हुए पत्ते हैं चमन में रक़्साँ
हाए बेगानगी-ए-आब-ओ-हवा मेरे बाद
मुँह धुलाती नहीं ग़ुँचों का उरूस-ए-शबनम
गर्द-आलूद है कलियों की क़बा मेरे बाद
आदमिय्यत-शिकनी भी तो नहीं कम 'अनवर'
डर है कुछ और न हो इस के सिवा मेरे बाद