भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लू / अजय कृष्ण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:52, 10 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय कृष्ण |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मुझे लू पसन्द है। …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे लू पसन्द है।
वह मई-जून वाली आग
मुझे पागल कर देती है ।
वह जितनी तेज़ हो,
गरम हो, लहक रही हो
शोले बरसा रही, आग
उगल रही हो जब
लाल-लाल लहक रहा
हो आसमान जब कुएँ में
बाल्टी डालने पर पानी
के बदले निकलता हो
भर-भर के छलकता
दहकता लाल-लाल लावा
मैं वह लावा पी जाना
चाहता हूँ, सीधे बाल्टी
मुँह में लगा कर।
जब तेज़ चल रही हो अग्निवायु
जब झूम रहा हो इसमें बबूर
जब झूम रहा हो वो ऊँचा-पुराना पीपल,
और जब मचल रही हो आग की
लपटों जैसी उस नीम की फुगनियाँ
जब कपड़े उड़ते हो सूखकर
लहकर विलीन हो पाते हों
राख बनकर,
जब ह-ह-ह की गरज़
लील रही हो इस धरती को
उखाड़ रही हो ऊँचे-ऊँचे मकान
बस रह पाते हों कोई-कोई
उखड़ कर बह जाते हों पहाड़
बस रह जाता हो अतीत
बनकर पठार
जब जंगल के जंगल बन
रहे हों रेगिस्तान
जब देश के देश उजड़ रहे हों
बस रह जाते हों फकत वीरान श्मशान
जब बढ़ रहा हो समंदर
आसमान की तरफ निरंतर
जब हिमालय की बर्फ़ गिरती हो
पिघल-पिघलकर नदियों में
खौलता पानी बनकर
जब खौलकर बहती हो गंगा
मैं इस खौलते पानी में
डुबकी लगाना चाहता हूँ ।
 
पड़ जाए मेरी देह पर फफोले
क्योंकि उस जलन से मुझे
स्नेह है, जो ताज़े-ताज़े
फोड़ो से आती है ।
मलना चाहता हूँ उस परपराहट को
उस जलन को इस देह पर
मलना चाहता हूँ उस पर मैं
लाल-लाल मिर्च,
फिर दुबारा कूदना चाहता हूँ
उसी खौल रही गंगा में
ताकि बढ़े यह लहर
यह परपराहट यह बेचैनी
और इसी बेचैनी से
जलन से गेंदबाजी करुँ
सौ मील प्रति घण्टा की रफ़्तार
तेज़ दौड़कर आँधी बनकर
मोटर बाइक चलाऊँ सौ मील
प्रति घण्टा की रफ़्तार से
ताकि टकराएँ इन फोड़ों से
दुगुनी गति से यह
लहकते लू के वज्र जैसे शोले
और फूटकर बहें मेरे फोड़े
निकले खौलता पानी उनमें से भी ।
 
नहीं,
मैं टकरा जाऊँ तेज़ आती
हाहाकारती धरती की छाती दहलती
लहकती लोहे की इंजन से ।
नहीं
मैं टकरा दूँ तेज़ दौड़कर
अपनी तड़प, अपनी लहक
अपने फोले लिए शरीर को
उस ऊँचे पहाड़ से
ताकि फूटकर हो जाएँ
चकनाचूर ये, व्रण
और बहें उन फूटे पत्थरों पर से
ये फोले गरम नदी बनकर।
मैं रहूँ हरदम बेचैन, बदहवाह।

मुझे न लगे भूख न लगे प्यास
मैं बन जाऊँ आग-आग
नहीं,
डाइनामाइट-डाइनामाइट
नहीं
यूरेनियम-यूरेनियम-यूरेनियम
हाँ,
और बन जाऊँ न्यूनक्लियर बम
और सवार होकर किसी महामिसाइल
पर चलूँ चार हजार कि०मी०प्रति
घंटे की रफ़्तार से गगन भेदता
गड़गड़ाता वायुमंडल को हिलाता
थरथराता पूरे ब्रह्मांड में भूकम्प
लाता और टकरा जाऊँ उस
दहकते सूर्य से
जिस पर लिखा है
पूँजीवाद
तब छा जाए इस पूरी
धरती पर शीतल-शीतल
शान्ति और अमन, और,
बनकर चाँदनी मुस्कुराऊँ
उस नवजात अँगड़ाई लेते
शिशु के ओठों पर जो
लेगा जन्म उस महाविस्फोट के पश्चात् ।

(7 जून, 1999)