भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह प्रेम कैसा / मनीषा शुक्ला

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 26 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीषा शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थे प्रयोजन प्रेम के सारे वहां पर,
पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा?

स्वर्ण के रथ पर लिए उन्माद यौवन
रूप से था मांगता ख़ुद प्राण दर्पण
हंस रही थी हर दिशा में कामनाएं
मद नहाई थी वहां हर एक चितवन
गन्ध के थे फूल हरकारे वहां पर,
पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा?

मेघ के उर में दमकती दामिनी थी
उड़ रहा आंचल, हवा सह गामिनी थी
हो लगन तम से किरण का जिस घड़ी में
शुभ मुहूरत सी खिली वह यामिनी थी
आरती के थाल में तारे वहां पर,
पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा

दे रही थी भोर को रजनी विदाई
आंख शबनम की तभी तो छलछलाई
मिल सकेंगी सांझ ढलने के पहर ही
हो गई हैं रश्मियाँ अब तो पराई
पालकी आई निशिथ द्वारे वहां पर,
पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा

सब सुरों में था घुला आनन्द साथी
मालती भी गा रही जैसे प्रभाती
काल क्रम को दे रही आशीष भावी
साथ दिन-रैना रहें, बन दीप-बाती
कर्म थे ना भाग्य के मारे वहाँ पर,
पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा