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वारिसों / ओमप्रकाश सारस्वत

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आस-पास
दौड़ती-सी
एक-जैसी
दूरियां हैं
कैसे हम
कहीं पर
मिलेंगे

किसी बड़े मुद्दे पर
जरा सहमति नहीं
कोई भी
बिंदु नहीं
केंद्र
कान की चर्चा में
नाक को
पकड़ते हैं
नाक की चर्चा में
नेत्र
अपनी-अपनी
क्यारियों के
मौसमी गुलाब हम
कैसे
सदा एक-सा
खिलेंगे

वार्त्ता में कोई
निष्कर्ष
निकलता नहीं
कर्त्ता हैं
कई-कई
भूलों के
जाले-जैसा
बुनते हैं
सारे मसलों को
हम, अहं में
पलते उसूलों के
देश की समस्याओं की
चिंता
बस भाषणों में
कैसे
समाधान हम करेंगे

या तो
किसी मीटिंग में
धर्म घुस आता है
या तो
किसी समिति में
वाद
किसी-किसी बैठक को
साम्प्रदायिकता उठाती
किसी-किसी को
आतंकवाद
नियम और नीतियों को
एक-दूसरा
असह्य
कैसे हम एकता करेंगे

ऐसे एक-दूसरे को
कोसते रहे जो यदि
कैसे
कोई
वायदा
निभेगा
सुविधा की
पालकी में
सो के जननायको
यूं
कैसे कोई
कायदा

सधेगा
एक-एक
हिस्सा
अंग-अंग
इस देश का
यह पूछता है
तुमसे ओ वारिसो !
अपने ही
सुर में अकेले
हो के
गाओगे
तो कैसे
शेष सुरों में
ढलेंगे