भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पद 91 से 100 तक / पृष्ठ 1

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:45, 16 जून 2012 का अवतरण (पद 91 से 100 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 1 का नाम बदलकर विनयावली / तुलसीदास / पद 91 से 100 तक / पृष्ठ 1 कर दिया गया है)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



पद संख्या 91 तथा 92

(91)

नचत ही निसि-दिवस मर्यो।

तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर्यो।।

बहु बासना बिबिध कुचुकि भूषन लोभादि भर्यो।

चय अरू अचर गगन जल थल मे, कौन न स्वाँग कर्यो।

देव-दनुज, मुनि,नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ हर्यो।।

थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर्यो।

अब रघुनाथ सरन आयो, भव-भय बिकल डर्यो।।


जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर्यो।
 
तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर्यो।।



    (92)

माधवजू, मोसम मंद न कोऊ।
जद्यपि मीन पतंग हीनमति, मोहिं नहिं पूजैं ओऊ।1।

रूचिर रूप आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं , ताते अधिक अयान्यो।2।

महामोह-सरिता अपार महँ,संतत फिरत बह्यो।
श्री हरि चरन कमल नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यो।3।

अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।
निज तालूगत रूधिर पान करि, मन संतोष धरै।4।

परम कठिन भव-व्याल- ग्रसित हौं त्रसित भयो अति भारी।
 चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी।5।

जलचल-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा।6।

मेरे अघ सारद अनेेक जुग, गनत पार नहिं पावै।
तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै।7।