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विन्सेंट वैन्गाग / अनिल अनलहातु

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वहाँ उस ओर खेत की मेड़ो पर
कौए मंडरा रहें,
कैनवास के अधूरे चित्र पर
खून के कुछ छीटें पड़े हुए थे;
पता नहीं जीवन की किन स्थितियों का
चित्रण करते वह किस जंगल से
होकर गुजरा कि...

गांव तब आँख मींचते उठा ही था
दूर गिरजे की घंटी अभी बजी ही थी,
ग्रीनविच की घड़ियों में
ठीक सुबह के सात बज के सैंतालिस मिनट हुए थे,
जब पेरिस की आखरी वेश्या
अपने अंतिम ग्राहक से निपट रही थी;
मार्क्स लन्दन की किसी अँधेरी कोठरी में
अपने होने को कोस रहा था,
उसने कैनवास पर खिंची थी अंतिम लकीर...
उसके दाहिने हाथ में ब्रश था
और बाएँ में थी पिस्तौल,
जीवन के सैंतीस कब्रों की नर्क से गुजरता
वह आज गिन रहा है
धरती की धुकधुकी।

उसकी उल्टी हुई आँखों में
न घृणा थी, न प्रेम
न महत्त्वाकांक्षा, न डर
वह एक साधारण आदमी
बना रहना चाहता था।

उसने "आलुखोरों"1 व "सिएनों"1 के बीच
अपने वसंत गवाएं थें;
उसकी रातें "नाईट कैफे"1 की टूटी उजड़ी
वीरान ख़ामोशी में गुजरी थीं,
अपने लाश पर मंडराते कौओं को वह
"गेहूँ के खेत"1 में देख चुका था
और "तारों भरी रात"1 में सबसे ज़्यादा
अपने-आप से डरता था।

वह अपने ही आत्म-चित्रों (सेल्फ-पोट्रेट्स) से होकर
गुजरता रहा हर बार, बार–बार,
जिस क्षण जीवन को बचाने की
अंतिम आकुलता में
मारी थी गोली उसने वैन्गाग को,
ठीक उसी क्षण
विएना की किसी बदनाम गली के
आखिरी छोर पर
एक व्यभिचारिणी के गर्भ में
चीखा था हिटलर।

मैं जानना चाहता हूँ की
क्या वैन्गाग की हत्या और
और हिटलर के चित्रकार होने में
कहीं कोई अर्थ है?

आज से सौ साल पहले ही
वह वहाँ से होकर गुजर गया था
जिसकी खोज में गोरख
आत्महत्या की दालमंडी
और राजकमल गंजेड़ियों की जमात तक गए.

बहुत दिनों तक वह एक शून्य पर
न्यूटन की सोच मुद्रा में
बैठा सोचता रहा
जीवन के धुंध और धुंधलके में आँखे गड़ाए,
और जब उसने पाया कि
सारी दुनिया ही
अंधेरे से होकर अंधेरे तक
जाती है
तो वह शुन्य को उल्टा कर
उसके भीतर घुस गया।

जिस दिन गर्भ के अंधेरे से वह
पहली बार बाहर निकला था
ठीक उसी समय
उससे सात सौ सैंतीस मील दूर
किसी कस्बे के कोने में
एक मज़दूर उसकी उम्र को
बारूद की डिबीया में भर रहा था।
 
यह उसे मालूम था
इसीलिए वह पैदा होते ही
चला आया और
एक कब्र के मुहाने पर बैठा रहा
सैंतीस पतझड़।

वह हमेशा अपने आप से चला
और घूमकर वापस
अपने तक ही पहुँच गया,
दरअसल वह पूरी ज़िन्दगी ही
अपने-आप से गुजरता रहा।

अपने आत्म-चित्रों में
धर्म से लेकर बोरिनाज़ की
गहरी खदानों की उबाऊ यात्रा की
और एक पादरी से चित्रकार बन बैठा।
 
ज़िन्दगी के बारे में
उसने विचार
खदानों और जंगलों से लिए थे
जो किसी लाश के सिरहाने रखे दिए की मानिंद
जलते-बुझते रहे...
चीख पड़ता हूँ मैं एकबारगी
की समाज के माथे
और आदमी के चेहरे के नकाब के पीछे
जो छिपा बैठा है
निकालो उसे, बाहर करो,
कौन है वह
जो छोटे-छोटे बच्चों को
ऊँटों की पीठ से बांधता है?
इस शताब्दी के सबसे बड़े कवि को
दिल्ली की अँधेरी कोठरियों में ढकेलता
सिजोफ्रेनिया तक ले जाता है,
जिसने फैला रखी है धुंध
जो राजकमलों को गंजेड़ियों और जाँघों के
दलदल में धंसाता है;
जो खुलेआम करोड़ों की अंतड़ियों को
मरोड़ता है
और कहता है कि
वह तो भूख और गरीबी को छूकर
लिखता है,

काव्य-संध्या और संस्कृति के पहलू में लेटा
वह कौन है, जो पहले तो तुम्हें मारता है,
पीछे तुम्हारे "काव्य" पर
रसायन का लेप चढा
तुम्हें शीशे के मर्तबानों में
चिर-सुरक्षित रख लेता है?




नोट: (1) महान Post–Impressionist डच चित्रकार विन्सेंट विल्लेम वैनगोग के बनाए चित्रों के नाम हैं।