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विवेकहीन दिन / मरीना स्विताएवा

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विवेकहीन, अनैतिक है मेरा यह दिन :
भिखारी से मांगकर रोटी की भीख
दान करती हूँ उसे निर्धन धनी को ।

सुई में से गुज़ारती हूँ किरणें
डाकुओं के हाथों थमाती हूँ चाबी
निष्प्रभ मुख पर फेरती हूँ आभा ।

भिखारी मुझे रोटी नहीं देता
धनी मुझ से पैसा नहीं लेता
सुई के छेद में से गुज़रती नहीं किरणें ।

डाकू घुसता है बिना चाबी के,
तीन धाराओं में बहते है बुद्धू लड़की के आँसू
अर्थहीन, घटनाहीन इस दिन पर ।

रचनाकाल : 20 जुलाई 1918

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह