वे भी दिन थे जब छूने से मैले होते ख़्वाब / राजेन्द्र गौतम
वे भी दिन थे जब छूने से मैले होते ख़्वाब।
उन दो कचनारी होंठों को जब टोहा करते होंठ
देती देह कपोती-सी तब अपने डैने खोल
श्याम घटा-सी कन्धों पर जब झुक जाती बरसात
चिर साथी संयम के होते पग तब डाँवाँडोल
जिन कच्ची साँसों को पीते रुँध जाते थे बोल
उनकी ही यादों की अब तक रखती ग़र्क शराब।
धरे-धराए रह जाते थे काग़ज़ क़लम दवात
कुर्सी के पीछे से आ जब बाहें लेतीं घेर
आँखों का दर्पण बन जाना तब ही पाए देख
अँगुलियों ने धीरे-धीरे तब ही छुए कनेर
और अभी तक ताज़ा ही है उसकी भीनी गन्ध
साथ पढ़ी पुस्तक में तुमने जो था रखा गुलाब।
एक पुराने एल्बम से वे खुलते थे तब लॉन
बैठ जहाँ चुपचाप कभी हम सहलाते थे दूब
लम्बी अनबोली यात्राएँ की थीं जिनके साथ
वे रांगोली सन्ध्याएँ तो गयीं सिन्धु में डूब
विदा कहा करते सूरज को जिस पर जा कर रोज़
चुप्पी से बतियाती है अब उस पुल की महराब।