भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था / 'क़ैसर'-उल जाफ़री

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:46, 25 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
कभी धुँआ तो कभी चाँदनी सा लगता था

हमारी आग भी तापी हमें बुझा भी दिया
जहां पड़ाव किया था अजीब सहरा था

हवा में मेरी आना भीगती रही वर्ना
मैं आशियाने में बरसात काट सकता था

जो आसमान भी टूटा गिरा मिरी छत पर
मिरे मकाँ से किसी बद दुआ का रिश्ता था

तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी
क़सम ख़ुदा की अभी मैंने तुम को सोचा था

ज़मीं पे टूट के कैसे गिरा गुरूर उस सा
अभी अभी तो उसे आसमाँ पे देखा था

भँवर लपेट के नीचे उतर गया शायद
अभी अभी वो शाम से पहले नदी पे बैठा था

मैं शाख़-ए-ज़र्द के मातम में रह गया 'क़ैसर'
खिजाँ का ज़हर शजर की जड़ों में फैला था