भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं / शमीम अब्बास

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:58, 9 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमीम अब्बास }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो एक शख़्स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं
वो ख़ुद को दूर कभी मुझ से कर सका भी नहीं

निगाह जिस की मिरी सम्त आज तक न उठी
मिरे सिवा वो किसी शय को देखता भी नहीं

मिरे ख़ुतूत तो झल्ला के फाड़ देता है
अजीब बात है पुर्ज़ों को फेंकता भी नहीं

तमाम वक़्त है वो महव-ए-गुफ़्तुगू मुझ से
ये कान जिस की सदाओं से आश्ना भी नहीं

हमारे सीने में छुप जाए डर के दुनिया से
वो जिस के लम्स ने अब तक हमें छुआ भी नहीं

जिधर भी देखूँ वही वो दिखाई देता है
मज़े की बात तो ये है कि वो ख़ुदा भी नहीं