भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो ज़ालिम तो नहीं पर सोचना था / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:44, 20 फ़रवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो ज़ालिम तो नहीं पर सोचना था ।
किसी उम्मीद पर मैं जी रहा था ।।

वो ख़त हरगिज़ नहीं मेरे लिए था
लिफ़ाफ़े पर मगर मेरा पता था ।

दिए दोनों जहाँ उसका करम है
मगर मैं और ही कुछ चाहता था ।

जनूं ने लाज रख ली आशिक़ी की
वगरना नाम लब तक आ चुका था ।

वहाँ पर कौन था मेरे अलावा
मैं ख़ुद मंज़र था ख़ुद ही देखता था ।

कमां थी और न तीरन्दाज़ कोई
फ़क़त एक तीर था था जो बेख़ता था ।

हज़ारों नाम थे बेहोशियों के
मैं जब-जब होश में था लापता था ।।

17 फ़रवरी 2015