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वो जो एक बुत पर / विकि आर्य

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वो जो एक बुत पर
आकाश बन के छाया था
वो बूढ़ा पीपल
जो कभी था, आज नहीं है
है अब भी वही
गंगा स्नान को जाती हुई भोर
वो ही हैं बाजार की
गर्माती हलचलें,
वही कढ़ाहों में खौलता हुआ दूध
वही टोकरियों में बिकती सब्जियाँ
हैं अब भी वही रिक्शों की
टनटनाती घंटियाँ,
हैं अब भी आँचल में
खनकती चूड़ियाँ.
इस पार से उस पार
अब भी गुजरते हैं बन्दर
खड़े हुए निठ्ठल्ले दरोगा
अब भी सुड़कते हैं चाय अक्सर
वही भीड़ पान की दुकानों पर
वही रंगीन पीकें सड़कों पर
है सब कुछ वही
बस वही नही है,
वो जो एक बूढ़ा पीपल था
आज नही है ...!
उस बुत को मिल गये हैं अब
चार खम्भे, कंकीट छत!
सुना है उस मन्दिर का वो
अब देव हो गया है
पुजता है सरी भोर से वो
रात गये तक
खोया है कीर्तनों में
है अपने ही में मगन वो
उसे उस बूढ़े पीपल की अब
याद नही है ...!
वो ही जो उस बुत पर
आकाश बन के छाया था
वो बूढ़ा पीपल, कभी था,
आज नही है
न जाने क्यूं मगर
वो जिंदा है मुझमें
इस पार से उस पार तक
शाखें फैलाये हुए
मुझमें क्यूं बैठ गया उस दिन
टूट जाना उसका?
चोट क्यूं देता रहा
कट जाना उसका?
बारिशों में लगने लगा
क्यों मुझे भी जड़ से
उखड़ जाने का खौफ़?
हां वो बूढ़ा पीपल, जो कभी था
आज भी है - शायद...!