भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई / सलीम अहमद

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:52, 17 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलीम अहमद }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो मिरे दिल क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई
ऐसी चली हवा-ए-शाम सारे चराग़ ले गई

शाख़ ओ गुल ओ समर की बात कौन करे कि एक रात
बाद-ए-शिमाल आई थी बाग़ का बाग़ ले गई

वक़्त की मौज तुंद-रौ आई थी सू-ए-मय-कदा
मेरी शराब फेंक कर मेरे अयाग़ ले गई

दिल का हिसाब क्या करें दिल तो उसी का माल था
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं अब के दिमाग़ ले गई

बाग़ था उसे में हौज़ था हौज़ था उस में फूल था
ग़ैर की बे-बसीरती मुझ से सुराग़ ले गई