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शकुन्तला / अध्याय 10 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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ढाहल वेदिक माटि जखन मृग आबि समेटी।
ककरा हा! हम करब शोर कहि ‘बेटी! बेटी!’।।
हरिणहुँ ककरा देखि शान्त शीघ्रे भय जायत?
ककरा हाथहिं धान, समा हरिणि गण खायत?

कुसुमित बेलि बिलोकि आब के मोद मनाओत?
गाबि आब के श्रवण-सुधा-धारा बरिसाओत?
सुगा-सारिका के पढ़ौत हा! आब सप्रीती?
सुनत ककर पिकवृन्द श्रवण दय सुमधुर गीती?

नव-नव कौतुल नित्य हाय! के आब देखाओत?
अहह! आब के मृगहिं प्रीति-उपदेश सिखाओत?
फुदकि-फुदकि चह-चह करैत भरि मधुर उमंगे।
बैसत ककरा अंग-उपर उडि़ आब विहंगे?

कर लय फरफरबैत सुनबइत गान-तराना।
क्षणहिं-क्षणहिं के आब खोआओत खगकें दाना?
ककरा भ्रमइत देखि चहूँ दिशिसँ खग घेरत?
के सभकें चुचुकारि दुलारत? प्रेमहिं हेरत?

होमधेनुकें हिरत घास के आनि खोआओत?
धेनु-वत्सकें विविध खेलि के आब खेलाओत?
के पिसि स्वकर हिंगौट हरिणकेर चोट सुधारत?
देखि मयूरक नत्य मुसुकि थपड़ी के पारत?

शास्त्र-पुराणक कथा आबि लग के नित सीखत?
श्लोक देव-देवीक सीखि के सुन्दर लीखत?
सखि प्रियंवदा-सँग बैसि के हरियश गाओत?
‘बाबा ! बाबा!’ बाजि आब के मन हर्षाओत?

कहब कहाँ धरि विषय अहो! ई अति दुखकारी।’
से कहि स्वर अवरुद्ध भेल मुनि कण्वक भारी।।
अश्रु-धार बहि चलल तनिक करुणार्द-नयनसँ।
एहि प्रसँगमे किछु न आर कहि भेल वयनसँ।

युग कर-पल्लव अपन तखन मुनि कण्व उठौलनि।
वृक्ष-लता दिशि ताकि एतादृश बयन सुनौलनि।।
‘हे तपवन-तरु-वृन्द! अहो! लतिके सुखशाली।
आइ तपोवन शन्य लगै अछि श्रीहत, खाली।।

सोदर-सम सम्बन्ध तोहि सभसँ जे जोड़ल।
निज श्रृंगारहुँ हेतु फूल-पातो नहि तोड़ल।।
कुसुमित तोहि विलोकि सदा उत्सव शुभ ठानल।
बिनु जल-सिँचन, ककर नाम जलपान न जानल।।

से शकुन्तला आइ पतिक गृह शुभ-शुभ चलली।
दहुन शुभाशीर्वाद, विपिन श्रीहत कय रहली।।
वनक चतुर्दिशिसँ विहगावलि कोकिल कूजल।
वनदेविक जनु शुभाशीषमय वाणी फूजल।।

बेश, आब चलु सुते! मार्ग मंगलकारी हो।
शीतल सुखद समीर अँहक पथ-श्रम-हारी हो।।
दिन-मणि-किरण न उग्र होय आतप हो मन्दा।
जल कमलें परिपूर्ण पथक सर हो सुखकन्दा।।

पथमे छाया-द्रमुक सघनता हो सुखकारी।
पथक दिवस हो मधुर, सुखद, सभ विधि मनहारी।।
मार्गक उड़इत धूलि कंज-मकरन्दहिं सम हो।
हो यात्रा शुभगूल, मधर आ ‘पथ-श्रम कम हो।।’

शकुन्तला तत्काल दुसह बुझि बिरहक पीड़ा।
पितु-पद-पंकज लपटि सरोदन कहल अधीरा।।
‘पितः फेरि ई पद सुपूज्य कहिया लखि पायब।
की न फेरि ई पुण्य तपोवनमे हम आयब।’

सुनि मुनि कहल सधैर्य-‘सूते! जनि होइ अधीरा।
चुप रहु! चुप रहुँ! अधिक करिय मनमे जनि पीड़ा।।
सुते! जखन प्रियतमा अहाँ भूपक भय जायब।
गृहक कार्यसँ क्षणहुँ लेश अवकाश न पायब।।

करब जखन अहँ प्राप्त सूर्यसन पुत्र-प्रतापी।
सार्वभौम विद्वान विश्व-मण्डल-बल-व्यापी।।
प्राप्त तखन अहँ करब अनुप आनन्द कलापे।
तखनहिं सकब बिसारि विपिन-विरहक उत्तापे।।

चिर दिन धरि रहि भूमि-सपत्नी भूपक रानी।
पुनि समर्थ पुत्रक विवाह लखि मंगल-खानी।।
सौंपि सुपुत्रक हाथ राज्य-सिंहासन-भारे।
आयब वन पति-सँग अहाँ सानन्द अपारे।।

अस्तु, आब नहि उचित लगायब लेशहुँ देरी।
कतय शांर्गरव सारद्वत छथि? होइछ अबेरी।।
आबथु, बहिनिक अपन सुखद लघु मार्ग बताबथु।
शुभ मुहर्तमे ताहि पतिक गृह जा पहुँचाबथु।।

उक्त युगल मुनि-शिष्य आबि अतिशय सुख मानी।
‘आउ, एम्हर भगवती! आउ’ -बजला प्रिय वाणी।।
से सुनि पुनि आदेश मुनिक बुझि गेल अधीरे।
शकुन्तला सखि-सँग उठलि भरि लोचन नीरे।।

‘के ई परिधन चीर हमर पाछाँसँ खीचय?
घुरि ताकलि लखि हरिणि गर्भिणी दृग-जल सीचय।।
अहा! अहा! सखि स्नेह सहित एकरा दुलरायब।
एकर जखन बच्चाक जन्म हो पत्र पठायब।।’

से कहि हरिणिक पीठ पोछि स्नेहे चुचुकारल।
अनुपम देखि सनेह तकर कत बेरि दुलारल।।
तखन शिष्य, गोतमि-समेत, पुनि शकुन्तलाकें।
लेख सँग, चललाह लखय गृह चन्द्र-कलाकें।।

कण्व आब निश्चिन्त कैल स्वाश्रम प्रस्थाने।
शोके नृत्य मयूर तजल खगगण निज गाने।।
त्यागल हरिणहुँ चरब, करब कौतुक कति भाँति।
त्यागल मधु गुंजार-गिरा शोके अलि-पाँती।

सखिगण, टहलब-फिरब, हँसब, बाजब सभ छोड़ल।
छोड़ल भोजन, शयन, नयन नीरहिसँ बोरल।।
क्षण-क्षण सखिहिंक चर्च, सखीहिंक निर्मल प्रीती।
अहह! तपोवन आइ शून्य श्रीहत सभ रीती।।