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शकुन्तला / अध्याय 19 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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‘की ई सैह मुद्रिका प्रियतम! नाथ-हाथ मनहारी?
जे प्रिय-मिलन-काल दुर्लभ भय देल बिरह दुख भारी?
भूपति कहल-सैंह औंठी थिक तब सुधिदायिनि बाले।
पहिरु-पहिरु अंहि आब विलासिनि! शुभ सँयोगक काले।।’

आध वदन हंसि हेरि सुलोचनि कहल वचन मधु आधा।
‘हम नहि, हम नहि-विश्वासक क्षण देलक ई बड़ बाधा।।’
तक्षण देवराज-रथ-वाहक मातलि आगति भेले।
एक अपूर्वानन्द मिलन लखि तनिकहुँ उर भय गेले।।
चलु-चलु, मातलि कहल-आब चलु कश्यप-दर्शन-काजहि।
पुत्र-हाथ धय चललि नृपक सैग शकुन्तलापि सलाजहि।।
कश्यप-अदिति-चरण-पंकजमे कयल महीप प्रणामे।
भेटल आर्शिवाद-होउ सुत! जयी, यशी अभिरामे।।

तक्षण कयल प्रणाम पुत्र-युत शकुन्तला सुकुमारी।
आशीर्वाद भेल-मनरंजन सौरूप-प्रवर्द्धनकारी।।
‘होथ सुरेन्द्र समान प्राणपति, सुत जयन्त-उपमानहिं।
अमर सोहागयुता अहुँ कन्ये! होउ शचीक समानहि।।’

अदितिहुँ देख शुभ शिष तक्षण कहि मधु-मंगल वाणी।
‘होथ अहां पति-प्राण वल्लभा युग-युग हे कल्याणी।।’
हो चिराय ई पुत्र-रत्न युग-वंश-समुज्ज्वलकारी।
अधिक आर कहबे की कत्ये! गुणधन्ये! सुकुमारी।।’

नृप-मुख ताकि कहल कश्यम ऋषी मधुमय बैन रसाले।
‘नारि सती, सुत शुद्ध युगल कुल सँग अहां महिपाले!
अँह तिनुक ई योग अहां! की अछि अतिशय अभिरामे।
जनु श्रद्धा, धन, धर्म समागम भेल सुखद एक ठामे।।’

‘नाथक अनुपम भेल अनुग्रह‘-कहल भूप दुष्यन्ते।
‘फुल लगै अछि प्रथम, तखन फल तरुमे फरय अनन्ते।।
वृष्टि होय पश्चात, प्रथम घन-घटा अबै अछि घेरी।
नाथक किन्तु कृपा गति औरहि लेखहुँ देखि सबेरी।।’

प्रथमहिं मनक मनोरथ पूरल! तखन भेल वरदाने।
प्रभो! धन्य भवदीय कृपा-फल सुमधुर और महाने।।
हे ऋषिदेव! ‘कहल पुनि भूपति-‘यदि आज्ञा हम पाबी।
तं किदु मनक वृतान्त नाथसँ सविनय बाजि सुनाबी।।

स्नेह समेत बिलोकि नवाग्रह भरल कश्यपादेशे।
लगला कहय दुखित भय मुनिसँ दु्रत दुष्यन्त नरेशे।।
देव, कण्व-कन्यासँ परिणय भेल हमर सुखकारी।
से सुधि कियै बिसरि हम भेलहुँ अपराधी बड़ भारी?

किन्तु फेरि औंठी पबितहिं मन पडि़. आयल सभ हाले।
की छल कारण ताहि रहस्यक? कह्ल जाय एह् काले।।
प्राणप्रिया-परित्याग जनित हम भेलहुँ कलंकक भागी।
हे सर्वज्ञ! मनोमालिन्यक कोना मिझायत आगी।।’

‘सुनु, सुनु पुत्र!’ कहल कश्यप ऋषी-अहंक न स्वल्पहुं दोषे।
क्रोधी दुर्वासाक ताय छल शाप सहित अति रोषे।।
औंठी भेटव धरिक अवधि छल तकर, त्यागु परितापे।
तें से पाबि सकल सुघि आयल, भेल प्रियाक मिलापे।।’

सुनि से, मन-मन कहलनि तक्षण शकुन्तला सु कुमारी।
हमरहु आब अबैछ किछुक सुधि ई शापक दुखकारी।।
चलय जखन लगलहुं तपवनसँ प्राणपतिक प्रिय धामे।
नृपकें दिह्ह् देखाय मुद्रिका-कहल सखी तेहि ठामे।।

तें बुझि पड़इछ तपोवनहिमे से क्रोधी दुर्वासा।
मम परोक्षमे शाप-वचन कहि कयलनि मिलन-निराशा।।
अहह! अहह! ध्रुव सँ ह शापवश त्यागल नाथ सरोषे।
सत्ये, हमर प्राणनाथक नहि छल तंह स्वल्पहुँ दोषे।।

सुनि मुनि-कथन नृपक दु्रत नाशल प्रिया-त्याग-अपवादे।
निजकें बुझि निर्दोष आब नृप प्रमुदित, विगत-विषादे।।
एम्हर एतय कश्यप बजला पुनि-‘सुनु, शकुन्तलें! वाणी।
प्राणनाथ निर्दोष अँहक छथि सभ विधि हे कल्याणी।’

तें मनमे कखनो जनि राखी क्यो दुर्घटना त्यागक।
दुख-दिवसक दुर्योग दुखद छल! आब दिवस सौभागक।।
सुखक बाद दुख बाद सुख, सृष्टि-नियम शुभ जानब।
सपनहुँ क्यो न मनोमसलिन्यक भावहु कौख आनब।।

तक्षण ऋषी ई मिलन-प्रसँगक समाचार सुखकारी-
दय ऋषि-कण्वक ओतय पठौलनि एक शिष्य सुविचारी।।
बुझल मेनको हेमकूटपर से शुभ मिलन-प्रसँगे।
लागल उछलय मातृ-हृदयमे हर्षक तुंग तरंगे।।

विगत-कुदूषण, पुरुकुल-भूषण पूषण-तेजागारे।
कुदिन गमौलनि, शुभ दिन पौलनि मन आनन्द अपारे।।
दिव्य देवराजक रथपर चढि़ पाबि कश्यपादेशे।
अयला राज्य-नगर रानी-सुत-सहित प्रमोद प्रजेशे।।
देवासुर सँग्राम-विजेता अमरगणक शुभनिष्ठा।
इन्द्रासनमे, इन्दासनपर अद्र्धासनक प्रतिष्ठा।।
जानि, मिझायल दुर्वासाकृत धघकल शापक ज्वाल।
दुभि धान फुल-झड़ी लगाओल राज्य-निवासिनि बाला।।

जयजयकार सुमन-वृष्टिक सँग स्वागत तैयारीसँ
बेश प्रसन्न भेल भूपक मन गीति मनोहारीसँ।
वृद्धा, वृद्ध शुभाशीर्वादक वृष्टि कयल सुखदानी।
सुत युत पृथ्वी भोग करथु चिर श्री शकुन्तला रानी।।

सर्वदमनहिंक ‘भरत’ नाम पर देशक ‘भारत’ नामे।
राखल गेल, आइ धरि जे अछि अति प्रसिद्ध अभिरामे।।
धनि दुष्यन्त देवलोकहुँ धरि जनिम कीर्ति-ध्वज फहरल।
धन्य भरत वीरत्व-प्रतापक जनिक ज्योति जग लहरज।।