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शब्द / कल्पना सिंह-चिटनिस

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लोग एक दूसरे से बोलते हैं ,
फिर भी नहीं बोलते,

कि कोई बाज उतरेगा
और लपक जायेगा उनके शब्द,
लहूलुहान कर डालेगा,

कि उनके शब्द फिर
शब्द नहीं रह जायेंगे।

लोग डरते हैं
शब्दों के दिन दहाड़े उठ जाने से,
रात के अंधेरे में गायब हो जाने से,

लोग चुप हैं
कि वे डरते हैं शब्दों की मौत से।

इस चुप्पी से,
मर नहीं रहे अब शब्द,
मर रहे हैं अर्थ अब शब्दों के।