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शब्दों से परे / प्रगति गुप्ता

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जब-जब मूंद कर नयनों को
मैने तुम्हारा स्मरण किया है...
तब-तब तुमने मेरा स्पर्श कर
मुझे अनुगृहित ही किया है
शब्दों से परे-
तुम्हारा आलिंगन
मेरे जीवन्त होने की
उस कड़ी से ही बंधा है
जहाँ मन प्राण एक हो
कुछ अभूतपूर्व अनुभूतियों से
बाँध मुझे निशब्द कर जाते हैं...
बस तुम अवतरित होना
यूँ ही सर्वदा मेरे मन की
सीढ़ियों से धीरे-धीरे ही
क्योंकि
तुम्हारी मुझ तक पहुँचती
पदचापें भी मुझे विभोर कर
अनुपम अनुभूतियाँ देती है...
वो मुझ तक पहुँच
मेरे पास आकर ही तो ठहरती हैं...
मौन ही बैठना
मेरे ह्दय के उस कोने में जाकर,
जहाँ मैं तुमसे
मिलती रहूँ प्रतिपल हर क्षण
जब-जब स्मृतियाँ तुम्हारी
बैचेन करें मुझको आकर...