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शरद / रामनाथ पाठक 'प्रणयी'

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शरद के लहँगा लहराइल।
बज उठल केकर दो पायल,
के दो मुसुकाइल।
शरद के लहँगा लहराइल।

बीत गइल बरखा के पहरा,
सिहरावन लागे भिनसहरा,
ताल-ताल में लाल उमिरिया-
खिल-खिल इटलाइल।
शरद के लहँगा लहराइल।

साफ भइल आकास सुहावन
खंजरीट उतरल मनभावन,
रात-रातभर पात-पात पर-
मोती छितराइल।
शरद के लहँगा लहराइल।

आँगन-आँगन में अगुआनी,
पूजा-दीप अरघ के पानी,
उड़ल चान के उड़न-खटोला
बलमा घर आइल।
शरद के लहँगा लहराइल।