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शाखे-नाज़ुक पे आशियाना है / बसंत देशमुख

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रुख़े-तूफ़ान वहशियाना है
शाखे-नाज़ुक पे आशियाना है

मौत आई किराए के घर में
सिर्फ़ दो गज पे मालिकाना है
 
ज़र्रे-ज़र्रे पे ज़लज़ला होगा
ये ख़यालात सूफ़ियाना है

वक़्त सोया है तान के चादर
किधर है पाँव कहाँ सिरहाना है

सिरफिरे लोग जहाँ हैं बसते
उन्ही के दरमियाँ ठिकाना है