भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाप / येव्गेनी येव्तुशेंको

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:39, 28 अक्टूबर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रातें हों
वसन्त की जब
तू सोचे मेरे बारे में
पर गर्मी की
रातों में भी
तू मेरे बारे में ही सोचे

रातें हों
पतझड़ की जब
तू मुझ को याद करे
पर सर्दी की
रातों में भी
सिर्फ़ मुझे ही प्यार करे

हालाँकि
मैं नहीं हूँ वहाँ
तेरे पास
दूसरे देश में हूँ
नहीं हूँ तेरे साथ

तू एकान्त में अकेले
ठंडे बिस्तर पर अपने
रात के अँधेरे में
लेटी हो पीठ के बल
जैसे सागर में, कहीं गहरे में
फिर सौंप दे तू ख़ुद को
मेरी स्मृति की लहर को
भूल जा आस-पास सब
अपने पूरे शहर को

मैं नहीं चाहता
याद करे तू
मुझे कभी भी दिन में
दिन में
सब गड़बड़ होता है
एक पल में, एक छिन में

सिगरेट पीकर
धुआँ छोड़े
हल्के सुरूर में हो जब
याद करे तू
दूसरी बातें
मुझ से दूर रहे तब

दिन में तू
जो चाहे सोचे
और चाहे जिस बारे में
पर रातों को
सोचे तू बस
मेरे, सिर्फ़ मेरे ही बारे में

रेल की सीटी
बजती हो
सब आवाज़ों के पार
बादल
गरज रहे हों चाहे
तेरे घर के बाहर
तेज़ हवा हो
आँधी-जैसी
उस झंझावात के पार
मैं चाहूँ कि
उस रात भी
सिर्फ़ मुझे करे तू प्यार

मुझे याद कर
सुख पाए तू
स्मृति से मेरी
मन बहलाए तू
नींद में हो तू
या उनींदी
मेरे वियोग में
मर जाए तू


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय