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शायद लौटें घनश्याम / नरेन्द्र दीपक

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शायद लौटें घनष्याम आज, बस इसीलिए,
मैं रँग की गागर लिए द्वार पर बैठी हूँ।

वह जो नयनों में मैंने सपने सँजोये थे,
जिन की खातिर ये नयन बहुत ही रोए थे,
हैं आज अकेला छोड़ मुझे वह चले गये
ग़म पहिले ही इस मन ने क्या कम ढोए थे?

शायद लौटें मेरे सपने बस इसीलिए
मैं मन की चादर लिए द्वार पर बैठी हूँ।

सब सखियाँ ही पिचकारी लेकर आएँगी
वो रँग से मेरा तन-मन ख़ूब भिगाएँगे
और कहीं मैं मन की कह गई बात अगर
वो ताली दे-दे मुझको ख़ूब चिढ़ाएँगी।

सखियों से पहिले लौटें वह बस इसीलिए,
मैं हल्दी चाँवर लिए द्वार पर बैठी हूँ।

मैं ऐसे ही बस कब तक दिवस बिताऊँगी,
इस मन को कब तक झूठ बोल बहकाऊँगी,
आज नहीं लौटे प्रीतम तो सुन लो फिर
मैं आज विरह की होली में जल लाऊँगी।

उड़ रहा साँस का आज पखेरू इसीलिए,
मैं दुख का सागर लिए द्वार पर बैठी हूँ।
शायद लौटें घनष्याम आज बस इसीलिए,
मैं रँग की गागर लिए द्वार पर बैठी हूँ।