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शिकवा-ए-इज़तराब कौन करे / शकील बँदायूनी

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हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़्हार-ए-मुसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदादिली दानिस्ता शरारत कर बैठे

कोशिश तो बहोत की हमने मगर पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी घबरा के मोहब्बत कर बैठे

नज़रों से न करते पुर्सिश-ए-ग़म ख़ामोश ही रहना बहतर था
दीवानो को तुमने छेड़ दिया वल्लाह क़यामत कर् बैठे

हर चीज़ नहीं एक मर्कज़ पर एक रोज़ इधर इक रोज़ उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद ये मोहब्बत कर बैठे