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शोर आवाज़ से भी बढ़कर है / अशोक 'मिज़ाज'

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शोर आवाज़ से भी बढ़कर है
ख़ामुशी गुफ़्तगू से बेहतर है

मैं पहाड़ों को रौंद आया हूँ
अब मेरे सामने समन्दर है

मुझको सोना बना दिया उसने
वो तो पत्थर था अब भी पत्थर है

मेरी आहें भी सर्द निकली हैं
आग सीने में इतने अन्दर है

मेरी शुहरत पे हैरतें कैसी
चाँदनी धूप का ही पैकर है

इक ग़ज़ल तुझ पे मह्रबाँ हैं ‘मिज़ाज’
ये सभी को कहाँ मयस्सर है।