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संध्या वर्णन / पुष्यदंत

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अस्तमे दिनेश्वरे जिमि शकुना। तिमि पंथिक ठिउ माणिक शकुना।
जिमि फुरियेऊ दीपक-दीप्तियऊ।
जिमि संध्या-राजे रंजियऊ। तिमि वेशा-रागे रंजियऊ।
जिमि भुवनल्लउ संतापियऊ। तिमि चक्रुल्लौ संतापियऊ।
जिमि दिशि-दिशि तिमिरहिं मिलियाइँ। तिमि विरहिनि-बदनइँ मुकुलिताइँ।
जिमि घरह कपाटउ दिन्नाइँ। तिमि बल्लभ सम्पति दिन्नाइँ।
जिमि चंदेहिं निज-कर-प्रसर कियेउ। तिमि पिय केशहि कर-प्रसार कियेउ।

सूर्य के अस्त हो जाने पर पक्षी घोंसलों में आ गए, उधर पथिक ठहर गया। इधर दीपकों का प्रकाश प्रस्फुटित हुआ, उधर स्त्रियों के अलंकार चमक उठे। इधर संध्या राग-रंजित हुई, उधर वेश्या राग से अनुरंजित हो उठी। इधर राजा का संताप बढा, उधर चकई चकवा का संताप बढा।

इधर अंधकार व्याप्त होने लगा, उधर जार सर्वत्र मिलने लगे। इधर रात में कमल संकुचित होने लगे, उधर विरहिणी का मुख मुरझाने लगा। इधर घरों के किवाड लगे, उधर वल्लभ आलिंगन करने लगा। इधर चंद्रमा ने अपनी किरणों का प्रसार किया, उधर प्रिय के केशों में हाथ खेलने लगे।