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सच्चाई की मौत / मधुरिमा सिंह

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हाँ, यह सच है हमने
तुम्हारी पवित्र किताबें
रेशमी कपड़ों में लपेटकर
अपने-अपने घरों में
पूजा के स्थान पर
रहल पर रक्खी हुई हैं,
 
हमने इन किताबों को,
पूजा तो ज़रूर है
मगर कभी पढ़ा नहीं
और कभी भूले से
पढ़ भी लिया हो
तो हम इन्हें
समझना नहीं चाहते,
हो सकता है तुम सबने
इन-इन किताबों में कहा हो
वह एक है
हमको तुमको दुनिया को
बनाने वाला एक है
हम सब एक ही
ईश्वर की संतान हैं
मगर हमारा यकीन नहीं
ऐसी ऊलजलूल बातों पर
इसीलिए हमने
तुम्हारी बातें
पूजी तो हमेशा
मगर मानी कभी नहीं

तभी तो हमने
हर बार ही
तुम्हारे नाम
बनवास लिखे
 
तुम्हे भर-भर कर
जहर के प्याले पिलाए,

हमने तुम्हे दीवारों में
ज़िंदा चुनवा दिया

हमने तुम्हे मज़बूर किया
तुम सच बोलने के जुर्म में
अपनी सूली
अपने काँधे पर ढोकर
अपने वध-स्थल तक
खुद ही ले चलोगे
और तब हमने
तुम्हे उस पर टाँग कर
तुम्हारे जिस्म में
बेरहमी से कीलें ठोंकी

हमने तुम्हे और
तुम्हारे मासूम बच्चों को
नदी के किनारे प्यास से
तड़पा-तड़पा कर मारा
तुम्हारे सर तक कलम किए

तुम्हारे सीने
गोलियों से छलनी किए

मगर तुम हर बार
मर-मर कर ज़िंदा हो जाते हो
हमें तय कर लिया है,
हम तुम्हे
ज़िंदा नहीं होने देंगे
अबके हम पिछली
ग़लतियाँ नहीं दोहराएँगे
इस बार हम
तुम्हारे शरीरों की नहीं
तुम्हारे विचारों की हत्या करेंगे
इसलिए हम
तुम्हारे पवित्र विचार
पवित्र किताबों में दफ़नाकर
रेशमी कफ़न से लपेटकर
पूजाघरों में
रखकर भूल जाएँगे