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सती परीक्षा / सर्ग 3 / सुमन सूरो

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बुतरू लव-कुश

कटलै रात अन्हार
जिन्दगी के उपवन में भोर भेलै।
हँसलै फूल-फली;
मधुबन भमरा-पंछी के सोर भेलै॥

रिमझिम बरसि गुजरलै
सावन-भादोॅ हरियाली दैकेॅ।
कमल कुमुद सें भरलै
पोखर सजलै खुशियाली लैके॥

रोज सुबह दिनमनि
लौलीनोॅ कंचन-थार सजाबै में।
रोजे साँझ लुटाबै
सोनोॅ पंछी मंगल गाबै में॥

रात रेशमी अंबर
बाँटै जंगल-झाड़ सोहानोॅ छै।
मानोॅ सपना एक
बिथरलोॅ अगजग कोनोॅ-कोनोॅ छै॥

कुल सें दूर कमल दू
विकसित अजगुत शोभा धारै छै।
सातो सुर बीना के
सधलोॅ मंगल-गीत उचारै छै॥

काजर करिया केस
घुँघरलोॅ, भाव उमड़लोॅ आँखी में।
मधु में भौरा लीन
लेटैलोॅ लट-सट सटलोॅ पांखी में॥

कत्तेॅ हबा-बयार
गुजरलै, कत्तेॅ वर्षा-धूप गेलै।
कत्तेॅ शरद-शिशिर
के पाला, दिन-दिन सुन्दर रूप भेलै॥

रुन-झुन थुबुड़-थुबुड़
पग-चालन, किलकी-किलकी भागै में।
अजगुत प्रेम-लहर
लौलीनोॅ, मृगछौना सें लागै में॥

आश्रम बीच नया
जीवन के बिरबा सहज बिराजै छै।
सन्यासोॅ ऐंगना में
मानोॅ गारहस्थ हँसि गाजै छै।

मुनि छै लीन शिलापर
बैठलोॅ खेल-तमाशा देखै में।
भाव-कल्पना भोर
निभोरोॅ अजगुत रचना लेखै में॥

प्रसव-वेदना ने जेना
अकुलाबेॅ मथेॅ पखेरू केॅ।
डिकरै लेॅ अकुलाबेॅ
गैया देखी पैहलोॅ लेरू केॅ॥

जेना पैहलोॅ मेघ
उमड़लोॅ बरसै खातिर लरजै छै।
मुनि छै भाव-लोक
लौलीनोॅ भूत-भविष्यत् सरजै छै।

अटल पुजारिन रं
बैदेही पूजा-ध्यान लगाबै में।
बलकल बसन, कंद-फूल
भोजन, विनती मंगल गाबै में॥

दुबरोॅ देह करुण
आँखीमें ममता लहर हिलोरै छै।
लव-कुश दोनों तनय
निहारी सब दुख-दुबिधा भोरे छै।

जेना चाँद दूज के
दिन-दिन बढ़ै, उजास अकासोॅ में।
जेना करिया मेघ
परैने फूल सोहाबै कासोॅ में॥

वहिना दिन-दिन दुख
बिसराबै, हिय हुलसाबै बातोॅ सें।
ठुट्ठोॅ ठार निपत्तोॅ
भरलै कोमल-चिकनोॅ पातोॅ सें॥

बिना खेबैया के
नैया पर माँझी कुशल सवार भेलै।
भँवर, या कि मँझधार
बीच भी मानोॅ आधोॅ पार भेलै॥

बलकल बसन लपेटी केॅ
बिरवा नया पटाबै सीताँ,
बलकल बसन लपेटी केॅ।

गगरीं-गगरीं पानी आनै,
मुनि के नेह-निषेध न मानै,
जेना परम तपस्या खाड़ी खुललोॅ केश समेटी केॅ।
बलकल बसन लपेटी केॅ।

लव-कुश किलकै मारै फेरा,
खोली दै अँचारा के घेरा,
मुनि-कन्या के रूप सोहाबै मिथिलेश्वर के बेटी केॅ।
बलकल बसन लपेटी केॅ।

रुनझुन-रुनझुन पजनी बाजै,
मस्तक भौरा मोर बिराजै,
लानै सुख डलिया के डलिया दुखके चेन्होॅ मेटी केॅ।
बलकल बसन लपेटी केॅ।

2.

सीतां सहलाय छै मृग-छौना।
पकड़ी केॅ हाथ,
दै आपनोॅ माथ,

लव-कुश छोड़ाय छै मृग-छौना।
सीतां सहलाय छै मृग-छौना।
गाछी के छाँह,
आश्रम के बाँह,

बैठी पगुराय छै मृग-छौना।
सीतां सहलाय छै मृग-छौना।
तोड़ी केॅ फूल,
खोंसै छै चूल,

हँसै-हँसाय छै प्रिय छौना।
सीतां सहलाय छै मृग-छौना॥

3.

सीतां मलि-मलि खूब नभाय,
बलकल वसन मगन मन पीन्है,
लव-कुश दोनों भाय।
सीतां मलि-मलि खूब नभाय।

धूप-दीप नैवेद्य आरती,
जप-तप पाठ-पुराय,
बालमीकि-आश्रम में नित-दिन विद्या सीखै जाय
सीता एकाकी मड़राय।
जग्य-वेदिका के काँथी पर
समिधा धरै काँथी पर
समिधा करै जुटाय।
सीता एकाकी मड़राय।

वेद-ऋचा मंडल आगम पर,
होबे करै पढ़ाय,
वीणा के सधलोॅ तारोॅ पर
रामायण लहराय।
सीता डूबै आ उतराय,
स्वर-लहरी के ताल-छन्द पर
चिन्ता बहलोॅ जाय
सीता डूबै आ उतराय।

4.

बन-बीच स्वर-लहरी, लहरि लहरे।
जंगल पहाड़ बीच
झहरि-झहरि जेना
झरना झरे,
तैन्हैं लव-कुश
दुओ भैया साधना करे।
बन-बीच स्वर लहरी, लहरि लहरे।

चाँदनी रात बीच,
गाछ-पात जीव-जीव
मौले-सिहरे,
जेना तार-तार
सातो सुर फैले-बिथरे।
बन-बीच स्वर लहरी, लहरि लहरे।

आश्रम बीच ठाढ़ी
एकाकी वैदेही मैया
गूने-बिसरे
दिने-दिने दुओ पूत
दूर-दूर दुरे।
बन-बीच स्वर लहरी, लहरि लहरे।

5.

फेरू सें एकाकी जिनगी भेलै हो राम
कि सीता मैया के।
लव-कुश साधै वीणा के तार,
रहि-रहि गूँजै जंगल-पहाड़,

बरोॅ के फेंड़ी पर बैठली अकेली
बिसरै छै सुरता-धियान हो राम,
कि सीता मैया के।
लेरू के बिना नै गैया अघाय,
कतनों घाँसोॅ में चरै लेॅ जाय,
दूरोॅ सें रहि-रहि नेहा पिराय
कचकै करेजोॅ-परान हो राम,
कि सीता मैया के।
फेरू सें एकाकी जिनगी भेलै हो राम।
कि सीता मैया के।

6.

जंगल श्याम, सरंगो श्यामे,
श्याम बरन सब ओर,
कन-कन जेना समाय गेलै,
श्याम बरन चित-चोर॥

कि सीतां ताकै छै जंगलबा निहारी-हेरी।
ऐलै सावन के बादरबा कि घेरी-घेरी॥

खुललोॅ केश बिथरलोॅ माथोॅ,
दूर देश में ध्यान।
वीणा के सधलोॅ स्वर
लहरी पर लहरै छै ‘राम’

कि लव-कुश नांघै एक बरसबा हरेकबेरी।
ऐथैं सावन के बादरबा कि घेरी-घेरी॥