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सन्तन को कहा सीकरी सों काम / कुमार मंगलम

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अरे चुप करो
कुम्भन
क्या तुम देशद्रोही हो
सन्त वही जिसे सीकरी सों काम
कुम्भनदास

योगी अब भोगी...
नाथ गाँवों में घूम भरथरी गाते थे कभी
अब वे राजधानियों में गाएँगे
भरथरी के गीत अब करुण नहीं हिंसक हैं
भरथरी की सारँगी से निकलेगा युद्धोन्माद का गीत

जब मैं छोटा था
मेरे गाँव में आते थे जोगी
जब हम नहीं खाते, ज़िद करते तो
दादी कहती जोगी झोले में लेकर चला जाएगा
जब दादी उनके झोले में अन्न देती
दादी का पल्लू पकड़ उनसे चिपका रहता
जोगी सुनाता 'सुन सारँगी कान कटबऽ'
सारँगी कहती 'हूँ' और मैं डर जाता
अब सारंगी गला काटेगी
लोग हँसेंगे, उनका मनोरँजन होगा
अख़बार छुपा ले जाएगा ख़बर
विज्ञापनों से भरा अख़बार
नहीं बताएगा
किसी सांसद की असंसदीय हरकत को
हम किसी भी अख़बार में नहीं पढ़ पाएँगे

किसानों ने सत्ता के हृदय पर कपाल लेकर अपने बेबसी का रोना रोया
किसानों में माया बहुत है वे नहीं कर सकते कपाल लेकर ताण्डव
वे मरना जानते हैं पर खेती छोड़ना नहीं जानते
वे छोड़ सकते हैं अपना शरीर पर खेत नहीं छोड़ सकते
वे असल सर्जक हैं
जिस दिन उनका ताण्डव होगा
पृथ्वी पर अन्न नहीं सिर्फ़ कँक्रीट के जँगल बचेंगे


हे कुम्भन
तुम बूढ़े हो गए हो
तुम्हारे प्रतिनिधि सठिया गए हैं
देखा नहीं, कैसा जनादेश है
नहीं दिखता जनादेश

उन्माद का कोई जनादेश नहीं होता
सिर्फ़ उन्माद होता है

उन्माद शोर है
कभी बहुत शोर में दब जाता है

एक भूखे के पेट से निकला अन्तिम शब्द
रोऽऽऽटीऽऽऽ

देखा नहीं रँग भी बता देते हैं तुम नहीं हो उनके जैसे
अभी तुम चले जा रहे हो

कि कोई सामने से आता है
और तुम्हारे पेट को भभोड़कर चला जाता है
तुम्हारे पेट से रिसता लहू नहीं दिखता किसी को

लोग तुम्हें देशविरोधी और पागल कह कर
जश्न मनाते हैं

लहू का रंग लाल नहीं
उन्हें केसरिया दिखता है महाकवि

वे जश्न मनाते हैं कि एक देशद्रोही ख़त्म हुआ
और तुम जो कभी भक्त थे अब कहे जाते हो देशद्रोही

कुम्भनदास जी
मुस्कुराइए कि आप ...... हैं
मुस्कुराइए कि आप अभी तक ज़िन्दा हैं
मुस्कुराइए कि गदहों का लोकवृत है
मुस्कुराइए कि सीकरी अब जंगल है

मुस्कुराइए कि सन्त अब सीकरी में हों, जंगल में हों, संसद में हों,
विधानपालिका में हों, कार्यपालिका में हों, न्यायपालिका में हों
सन्त हैं

और आप असन्त क्योंकि
सन्त वही जिसे सीकरी सों काम ।