भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपना और सच/ सजीव सारथी

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:15, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखों से ओझिल,
हो गया वो,
किसी सपने की तरह,
जो पलक खुलते ही,
किसी फूल की पंखुड़ी में छुपे,
भंवरे की मानिंद,
उड़ जाता है कहीं दूर,
फिर कब लौटेगा, पता नहीं,
शायद कभी नहीं....

चाँद को अभी सुलाया ही था,
आँचल की चादर ओढाई थी,
पलकों का सिराना लगाया था,
जाने कब रात ढल गयी,
पलकें भी खुल गयी,
फूलों पर शबनम देखी है,
पलकें भी भीगी सी लगती है....

तभी कहीं दूर से, एक किरण आई,
पलकों पर बिखर गयी,
लगा किसी ने कहा हो –
उजाला हो गया,
अब तो सच को पहचानो