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सपने / अशोक कुमार

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सपने चमकीले थे
रुपहले और बेहतर

सदियों से ढोये जाते थे सपने
किसी की पीठ पर
आँखों में मोतियाबिंद लिए

बीती हुई सदियों में
स्त्रियों की पूरी की पूरी आबादी थी
जो वक्र नज़रों से सपने देखती थी

वृद्ध जिनकी दृष्टि क्षीण हो गयी थी
पीठ से सपनों की बोरी उतार देने की जल्दी में थे
और पीठ पर पड़े घट्ठों को सहला देने को आतुर थे

युवा आनन फानन में सपनों को
आसमान से उतार लेना चाहते थे

बच्चों की तो यह विरासत थी
कि उन्हें आँखों में
किसी औषधि की तरह
उन्हें डाल दिया जाना था

मांओं ने स्वतंत्र सपने कहाँ देखे थे
उन्होंने लोरियों में
सपनों की गुलामी को पिरो दिया था

सपने सदियों पहले देखे जाते
और आज भी देखे जाते
और यह सवाल भी छोड़ देते
कि दुनिया में वाकई सब कुछ ठीक ठाक है
उन सपनों की तरह

जो चमकीले थे
रुपहले
और बेहतर।