भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपने में गाँधी / अशोक तिवारी

Kavita Kosh से
Ashok Tiwari (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:27, 7 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक तिवारी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> आज रात सपने में ग…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज रात सपने में गाँधी घूम रहे थे इधर-उधर
परेशान और त्रस्त भाव से खोज रहे थे सही डगर
इस धरती की घूल में मिलकर सीखा पाठ ख़ुदाई का
दर्द किया महसूस उन्होंने खून बहा जो भाई का
बात बढ़ेगी और बढ़ेगी मिटा नहीं ये बैर अगर
आज रात सपने में गाँधी .............

धू-धू, धू-धू, लपटें उठतीं भस्म हुआ सब घर आँगन
खून ख़राबा मारकाट में, बुझा-बुझा सा रहता मन
डूब रहा तिनके का सहारा दिखती नहीं है राह मगर
आज रात सपने में गाँधी ............

आसमान में धुआं उठता, हो-हल्ला है सड़कों पर
हिंदू राष्ट्र की एक झलक से धरती उसकी खून से तर
त्रिशूलों को घोंप-घोंपकर बरपा रहे हैं ख़ूब कहर
आज रात सपने में गाँधी ............

कौन जला है, कौन मिटा है और कौन सा है बाकी
कौन पहनता है खद्दर और कौन पहनता है खाकी
दिखा रहे हैं वर्दी, निक्कर मिलकर अपना नाच ज़बर
आज रात सपने में गाँधी ............

तेरी धरती पर गाँधी 'वे' भीख मांगते जान की
फ़िक्र उन्हें ज़िंदा रहने की नहीं फ़िक्र पहचान की
बँटवारे के बाद आज फिर चीख़ रहा है नगर-नगर
आज रात सपने में गाँधी ............

गाँधी उठकर राजघाट से चले वहीं फिर घर की ओर
बंद देखकर अपना आश्रम रोए बहुत लगाकर ज़ोर
क्या होगा अब मानवता का रहा अगर इनका ये सफ़र
आज रात सपने में गाँधी ............

फ़ासीवादी ख़तरे घर-घर सांकल अब खटकाते हैं
घर के भीतर माँ की कोख़ के बच्चे भी मिमियाते हैं
हिटलर के चेलों को देखो फैलाते हैं ख़ूब ज़हर
आज रात सपने में गाँधी घूम रहे थे इधर-उधर
परेशान और त्रस्त भाव से खोज रहे थे सही डगर
 
रचनाकाल : 18 अप्रैल, 2002