भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपने मैंने भी देखे हैं / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:54, 6 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=हरी घास पर क्षण भर /...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 सपने मैं ने भी देखे हैं-
मेरे भी हैं देश जहाँ पर
स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं।

मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस
व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द्यौस्पितर के!

आज अगर मैं जगा हुआ हूँ अनिमिष-
आज स्वप्न-वीथी से मेरे पैर अटपटे भटक गये हैं-
तो वह क्यों? इसलिए कि आज प्रत्येक स्वप्नदर्शी के आगे
गति से अलग नहीं पथ की यति कोई!

अपने से बाहर आने को छोड़ नहीं आवास दूसरा।
भीतर-भले स्वयं साँई बसते हों।
पिया-पिया की रटना! पिया न जाने आज कहाँ हैं :
सूली पर जो सेज बिछी है, वह-वह मेरी है!

इलाहबाद, 6 जनवरी, 1949