भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सब अकेले हो गए बस / शैलजा पाठक

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 30 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ नहीं ठहरा
सिवा इस वक्त के
तू गया बातें गईं
वो गुनगुनाती धूप में
जब साथ हों कुछ देर को
कहते से हम
सुनते से तुम
वो रास्ते ही गुम हुए
ओस सी वो बूंद थी
जो झिलमिलाती थी कभी
मुझको मिली एक रात वो
बस आँख भर कहने लगी
अब ख्वाब ही आते नहीं
यूं गए तुम नींद मेरी ले गए
वक्त से कितनी शिकायत मैं करूं
सुबह सवेरे शाम, है ठहरा हुआ
ये गुजरते ही नहीं जब से गए तुम...
मोड़ का वो पेड़ भी रूठा हुआ
मुड़ गए तुम जिस जगह से राह अपनी
पतझड़ों का दौर है अब
और मौसम भूल कर भी
छू नहीं पाए हैं इसको
यूं गए तुम
सब अकेले हो गए हैं...