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सब छलते हैं छलने तक / दीपक शर्मा 'दीप'
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सब छलते हैं छलने तक
घर जलते हैं जलने तक
उड़ बैठे हैं जो शो-जूनूं
लेकिन सूरज ढलने तक
सख़्ती होना है लाज़िम
सारा ज़ोर पिघलने तक
कितना अच्छा लगता है
कोई हमको खलने तक
ठण्डा तो है लेकिन देख!
केवल मौन उबलने तक
दब-कर ही तो रहता है
लावा फूट निकलने तक
ठहरा है यह रस्ता दीप
हम-दोनों के चलने तक