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समय के हस्ताक्षर / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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मरण धर्मा जीव और जीवन के सभी सुख,

छल छद्म और अविश्वास से भरें हैं.

हर व्यक्ति और वस्तु में, क्षरण और मरण का कीट ,

जाने कौन तब मरे और अब मरे है.

जन्म अपने गर्भ में , मरण लेकर ही जन्मती है.

मरण अपने गर्भ में जन्म लेकर ही संवारती है.

भोगने की भावना पर मर्त्य सुख का भाव .

मन को उचाट कर देता है.

साँस में व्यथा की आरियों सी चलतीं हैं ,

जो सब कुछ सपाट कर देता है.

एक -एक मोह ग्रंथि बार -बार यहॉं चटक कर टूटती है.

तिल -तिल कर बने विकसित उपवन और यौवन

निर्दयता से एक पल में कूटती है.

निः शंक , निर्भय , निर्द्वंद और शाश्वती में जीना हो तो ,

अपने ही शरीर की मूल धरती पर उतरना होगा.

गहराव में ठहराव ,

बहाव में बिखराव है.

समय के प्रवाह में

शाश्वती प्रभाव की अभीप्सा है.

तो काल के भाल पर ,

अनाहत पौरुष और पराक्रम के ,

ध्रुवीय शिलालेख लिख दो,

जिस पर समय के हस्ताक्षर हों .

ऐसे ही जन्म --मरण कृतित्व अक्षर हों.