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समुद्र नहीं है नदी-1 / राकेश रोहित

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चाहता तो मैं भी था
शुरू करूँ अपनी कविता
समुद्र से
जो मेरे सामने टँगे फ्रेम में घहराता है
और तब मुझे
अपना चेहरा आइने में नज़र आता है
पर मुझे याद आई नदी
जो कल अपना
घुटनों भर परिचय लेकर आई थी
और मैंने पहली बार देखा था नदी को इतना क़रीब
कि मैं उससे बचना चाहता था

नहीं, मैं नदी से
उतना अपरिचित भी नहीं था
नदियाँ तो अकसर
हमसे कुछ फ़ासले पर बहती हैं
और हमारे सपनों में किसी झील-सी आती हैं ।

मैं समझ रहा था
कि महसूसा जा सकता है
इस धरती पर नदी का होना ।
बात नदी-सी प्यास से
शुरू हो सकती थी
बात नदी की तलाश पर
ख़त्म हो सकती थी
पर मैं कब चाहता हूँ नदी
अपने इतने पास
जितने पास समुद्र
मेरे सामने टँगे फ्रेम में घहराता है ।