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सरे राह, घरों, गलियों दरबार में / सुदेश कुमार मेहर
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सरे राह, घरों, गलियों दरबार में
हर गाम लुटी मैं इस संसार में
कुछ बात हुआ करती थी बात में
वो बात कहाँ है अब तलवार में
कुछ चीर रही आँखे कुछ तौलतीं,
हर वक़्त बदन हूँ मैं बाज़ार में
पहचान उभारो-ख़म ही तो नहीं,
कुछ और पढो मेरे किरदार में
कल रात चली सरहद पे गोलियां,
माँ ढूंढ रही किसको अखबार में