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सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना / 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी

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सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना
वो मौज मौज मगर ख़ुद मेरा बिखर जाना

ये क्या ख़बर तुम्हें किस रूप में हूँ ज़िंदा मैं
मिले न जिस्म तो साए को क़त्ल कर जाना

पड़ा हूँ यख़-ज़दा सहरा-ए-आगही में हुनूज़
मेरे वजूद में थोड़ी सी धूप भर जाना

कभी तो साथ ये आसीब-ए-वक़्त छोड़ेगा
ख़ुद अपने साए को भी देखना तो डर जाना

जो चाहते हो सहर को नई ज़बान मिले
तो पिछली शब के चराग़ों को क़त्ल कर जाना

हमारे अहद का हर जे़हन तो नहीं जामिद
किसी दरीचा-ए-एहसास से गुज़र जाना

‘फज़ा’ तुझी को ये सफ़्फ़ाकी-ए-हुनर भी मिली
इक एक लफ़्ज़ को यूँ बे-लिबास कर जाना