नदी के दो किनारे
योगदानकर्ता: मृदुल कीर्ति
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दो शरीर परस्पर सलग परस्पर विलग आत्मीय आदान-प्रदान का सेतु बंध, था ही नहीं । आकर्षण विकर्षण का प्रतिबिम्ब , था ही नहीं । परस्पर प्रति,सहज समर्पण, स्नेहानुबंध था ही नहीं । नितांत असम्पृक्त एकाकी होकर भी । हम निरंतर इस तरह साथ हैं, जैसे धरती पर छाया आकाश , विराट नदी के दो अदृश्य किनारे, परस्पर सलग , परस्पर विलग ।