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साँसों की जल-तरंग पर नग़मा-ए-इश्क़ / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

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साँसों की जल-तरंग पर नग़मा-ए-इश्क़ गाए जा
ऐ मेरी जान-ए-आरज़ू तू यूँही मुस्कुराए जा.

हुस्न-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से जादू नए जगाए जा
जब भी जहाँ पड़ें क़दम फूल वहीं खिलाए जा.

आग लगा के हँस कभी बन के घटा बरस कभी
बिखरा के ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं होश मेरे उड़ाए जा.

बरसों के बाद आँखों में छलकी है प्यार की शराब
बंद न कर ये मय-कदे ऐसे ही बस पिलाए जा.

मस्ती भी है समाँ भी है महफ़िल-ए-दिल-बराँ भी है
ऐसे में 'तर्ज़' झूम कर रंग-ए-ग़ज़ल जमाए जा.