भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सागर भी तो क़तरा निकला / प्रखर मालवीय 'कान्हा'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:19, 18 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सागर भी तो क़तरा निकला
फिर आँखों से बहता निकला

बोलो अब तुम क्या कहते हो?
मैं इस बार भी सच्चा निकला

दिल तो खैर परीशां था ही,
ज़ह्न भी मेरा उलझा निकला

डूब गया शब के दरिया में
चाँद भी बस इक क़तरा निकला

दिल में लौटा शाम हुई तो
दर्द भी एक परिन्दा निकला

मुझसे किसने बातें की थीं
सन्नाटा तो गूंगा निकला

उसके आंसू, मेरी खुशियाँ
'ये सौदा भी महंगा निकला'

कान्हा' रोया आज मैं जी भर
दिल का इक इक काँटा निकला