भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साथ हैं फिर / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:30, 15 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन पहाड़ी रास्तों के
और जंगल की हवाएँ
साथ हैं फिर
 
दूर नीचे कहीं छूटे
शोरगुल पिछले शहर के
खुशबुओं से बात करते
घने साये दोपहर के
 
धूप की पगडंडियाँ
नीलाभ सपनों की ऋचाएँ
   साथ हैं फिर
 
नदी-झरने संग
उनके तले की चट्टान
हँसती बह रही है
दूर ऊपर कहीं
बरफीीली शिलाएँ कह रही हैं
 
और ऊपर आओ- देखो
ऋषि तपोवन- अप्सराएँ
साथ हैं फिर